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Hindi Now Uttar Pradesh • 22 Jun 2025, 01:54 pm
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 22 जून रविवार सुबह ईरान पर हमले की जानकारी दी है। उन्होंने सोशल प्लेटफॉर्म ट्रुथ पर बताया कि हमने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों फोर्डो, नतांज और इस्फहान पर हमला कर उन्हें नष्ट कर दिया है। उन्होंने करीब 2 घंटे बाद देश के नाम संबोधन में दावा किया कि ईरान की न्यूक्लियर साइट्सको पूरी तरह तबाह कर दिया गया है। इसी के साथ अमेरिका अब ईरान के खिलाफ सीधी जंग में कूद पड़ा है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आखिर अमेरिका ईरान के खिलाफ सीधी जंग में क्यों कूद पड़ा है?
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका ने ईरान के फोर्डो परमाणु ठिकाने पर बड़ा हमला किया है। एक अमेरिकी अधिकारी ने बताया कि छह B-2 बॉम्बर्स ने इस ठिकाने पर दर्जन भर 30,000 पाउंड वजनी बंकर बस्टर बम गिराए। यह ठिकाना जमीन के काफी नीचे स्थित है और पहले अनुमान था कि इसे तबाह करने के लिए केवल दो बंकर बस्टर बम ही काफी होंगे। हालांकि बाद में बंकर बस्टर की संख्या बढ़ानी पड़ी। इसके अलावा अमेरिका की नौसेना की पनडुब्बियों से नतांज और इस्फहान में मौजूद परमाणु ठिकानों पर 30 टॉमहॉक क्रूज मिसाइलें (TLAM) दागी गईं। ये मिसाइलें करीब 400 मील दूर अमेरिकी पनडुब्बियों से लॉन्च की गईं थीं। अधिकारी के मुताबिक एक B-2 बॉम्बर ने नतांज पर भी दो बंकर बस्टर बम गिराए।
16 जून को इजराइल ने दावा किया था कि उसने ईरान की राजधानी के ऊपर आसमान पर कब्जा कर लिया है। इजराइल ने ईरान के एयर डिफेंस और मिसाइल सिस्टम को कमजोर कर दिया, जिससे B-2 बॉम्बर्स के लिए रास्ता साफ हो गया। आसमान साफ होने का फायदा उठाते हुए अमेरिका ने भी ईरान के खिलाफ हल्ला बोल दिया। हालांकि ईरान की परमाणु ऊर्जा एजेंसी और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने पुष्टि की है कि इन हमलों के बावजूद फोर्डो, नतांज और इस्फहान ठिकानों पर कोई रेडिएशन लीक नहीं हुआ है और इन स्थलों की सुरक्षा सामान्य बनी हुई है।
अमेरिका ने क्यों किया ईरान पर हमला?
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प नहीं चाहते थे कि इजराइल ईरान पर हमला करे, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि इससे परमाणु समझौते (न्यूक्लियर डील) पर असर पड़े। ट्रम्प का उद्देश्य ईरान को अपनी शर्तों पर चलाना था, न कि इजराइल की शर्तों पर। मई में ट्रम्प ने इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को फोन कर सख्त चेतावनी दी थी। ट्रम्प ने अपने एक सहयोगी से कहा था कि नेतन्याहू उन्हें मिडिल ईस्ट के एक बड़े युद्ध में घसीटने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि उन्होंने अमेरिकी जनता से वादा किया था कि वे अमेरिका को युद्ध से दूर रखेंगे। ट्रम्प नेतन्याहू के गुस्से को शांत करने के लिए वह महीनों तक रणनीति बनाते रहे। हालांकि जब नेतन्याहू नहीं रुके तो ट्रम्प ने बीच का रास्ता चुना। इजराइल ने उन्हें आश्वस्त किया कि अगर सैन्य विकल्प खुला रहेगा तो ईरान डील के लिए तैयार हो सकता है। ट्रम्प प्रशासन नेतन्याहू को रोकने में असमर्थ रहा और ट्रम्प को उनका समर्थन करना पड़ा। 9 जून को नेतन्याहू ने ट्रम्प को फोन कर बताया कि मिशन शुरू हो गया है और इजराइली सेना ईरान के भीतर घुस चुकी है। इसके बाद ट्रम्प ने कहा कि लगता है हमें उनकी मदद करनी ही होगी। इजराइल को जब शुरुआती हमलों में बढ़त मिली तो ट्रम्प खुलकर उसके समर्थन में आ गए और मीडिया में दावा करने लगे कि इस हमले में उनका पर्दे के पीछे बड़ा योगदान है। इसके बाद ईरान पर हमला करने का भी दावा किया है।
अमेरिका की ईरान से क्या है दुश्मनी?
1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद देश की राजनीतिक दिशा पूरी तरह बदल गई। अयातुल्लाह रुहोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में अमेरिका के करीबी शाही शासन को हटाकर ईरान को एक इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया गया। इसी साल ईरानी छात्रों ने तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमला किया और वहां मौजूद 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा। इस घटना ने अमेरिका और ईरान के संबंधों में गहरी दरार पैदा कर दी। इसके बाद से दोनों देशों के रिश्ते लगातार बिगड़ते चले गए, खासकर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर। अमेरिका और पश्चिमी देशों को आशंका है कि ईरान परमाणु हथियार बनाकर मध्य पूर्व में अपना दबदबा कायम करना चाहता है। इसी वजह से अमेरिका ने ईरान पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए। इस दुश्मनी की एक अहम वजह इजराइल भी है। अमेरिका में यहूदी लॉबी का गहरा प्रभाव है और वहां की हर सरकार इजराइल का समर्थन करती है। यही कारण है कि अमेरिका, इजराइल की सुरक्षा के लिए ईरान को एक बड़ा खतरा मानता है और उसे हर मोर्चे पर घेरने की कोशिश करता है।
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