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Hindi Now Uttar Pradesh • 26 Jul 2025, 11:17 am
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए अहम टिप्पणी की है। कोर्ट ने टेलीविजन, इंटरनेट मीडिया के ‘विनाशकारी’ प्रभावों पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। न्यायमूर्ति सिद्धार्थ की एकलपीठ ने यह चिंता कौशांबी के किशोर की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका स्वीकार करते हुए की है। जिसमें किशोर न्याय बोर्ड और कौशांबी की पाक्सो अदालत के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें कहा गया है कि नाबालिग संग सहमति से शारीरिक संबंध बनाने में आरोपी को वयस्क मान कर मुकदमा चलाया जाएगा।
हाईकोर्ट ने निचली अदालतों के आदेशों को न्यायोचित नहीं पाया और रद कर दिया। कोर्ट ने कहा, “रिकार्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे यह पता चले कि आरोपी कोई शिकारी है और बिना किसी उकसावे अपराध दोहरा सकता है। सिर्फ इसलिए कि उसने जघन्य अपराध किया है, उसे एक वयस्क के बराबर नहीं रखा जा सकता. क्योंकि मनोवैज्ञानिक ने भी उसमें सामाजिक संपर्क को प्रयाप्त नहीं पाया है।
हाई कोर्ट ने याची को किशोर मान कर उसके खिलाफ मुकदमा चलाने का निर्देश किशोर न्याय बोर्ड को दिया है। सुनवाई के दौरान किशोर के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट पर ध्यान दिया। जिसमें 16 वर्षीय आरोपी का बौद्धिक स्तर 66 पाया गया। इस पर कोर्ट ने कहा कि यह आईक्यू उसे बौद्धिक कार्यक्षमता के मामले में ‘सीमांत’ श्रेणी में रखता है।मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट याची के पक्ष में है। पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाते समय उसकी आयु लगभग 14 साल थी। पीड़िता को गर्भपात की दवा देना उसके विवेक पर निर्भर नहीं था। कोर्ट ने कहा कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 15 के तहत बोर्ड को चार मानदंडों के आधार पर प्रारंभिक मूल्यांकन करना चाहिए। जिसमें मानसिक क्षमता, जघन्य अपराध करने की शारीरिक क्षमता, अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता, और अपराध की परिस्थितियां शामिल हों।
हाई कोर्ट ने बाम्बे हाई कोर्ट द्वारा मुमताज अहमद नासिर खान बनाम महाराष्ट्र राज्य के 2019 के फैसले में की गई टिप्पणियों से अपनी सहमति व्यक्त की। जिसमें कहा गया है कि टेलीविजन, इंटरनेट मीडिया नाबालिगों के संवेदनशील दिमाग पर विनाशकारी प्रभाव डाल रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप बहुत कम उम्र में ही उनकी मासूमियत खत्म हो रही है। हाई कोर्ट ने कहा, निर्भया मामला अपवाद था। वैसे कोई सामान्य नियम और सभी किशोरों पर वयस्कों की तरह मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। जब तक कि उनके मानस पर पड़ने वाले समग्र सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर उचित विचार न किया गया हो।